युवा होने का मतलब .......?
क्या युवा होने का मतलब सिर्फ़ 18-40 की उम्र का होना है या फिर उसके लगन,संघर्ष,हौसले या फिर उसकी नई सोच से लगाई जानी चाहिए जो किसी भी चीज़ को अपनी ताक़त और सोच के बदौलत सही दिशा मे मोड़ सकता है। दरअसल ये सवाल इसलिये उठ रहे हैं कि आज के समय मे युवा होने की मायने बदल गये हैं। युवा होने का मतलब आधुनिक होती जीवन शैली, झूठी शानो-शौकत या फिर दिखावे की ज़िंदगी से हो गया है।
दरअसल वैश्वीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया से पूरी दुनिया मे जो सामाजिक और आर्थिक बदलाव आये, उसने युवाओं की सोच को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। जाहिर है कि इससे हम यानी भारत के युवा भी अछूते नही रहे। पश्चिमी देशों की तर्ज़ पर हमारे यहाँ भी उनका क्लोन तैयार हो रहा है जो मंदिर जाने के बजाय पब, क्लब और डिस्को मे जाना पसन्द करता है। ग्लैमर और फैशन की चकाचौंध में आकर अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है। संस्कारों, मर्यादाओं और आदर्शों को रौंदते हुये बनावटी सपनों को पाने की ललक इतनी तीव्र हो चुकी है कि पारिवारिक रिश्तों का विखण्डन या फिर उन्हे ताक पर रखना कोई मयाने नही रखता, लिहाजा युवाओं के सोचने, समझने और देखने के नज़रिये मे व्यापक बदलाव आया है और मानसिकता हर प्रकार संबन्धों और रिश्तों को स्वार्थ भरी नज़रों से देखने की बन गई है।
वैश्वीकरण वैश्वीकरण और हमारी बदलती हुई मानसिकता की वजह से आज की ज़रुरते, रोटी , कपड़ा कापी किताब से इतर सेलफोन, इंटरनेट और फिल्में मे स्थानात्तरित हो गई है और इन सब चीजों में इतने तल्लीन हो गए है कि उचित और अनुचित के बीच का फर्क लगभग समाप्त हो गया है। यही वजह है कि पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की बागडोर लगातार दरकती जा रही है।
परिवेश को युवा पीढी़ के प्रागतिशील सोच, विचार के अनुरूप ढ़लना चाहिये न कि युवाओं को इसके अनुरूप ढ़लना चाहिये । वर्तमान परिवेश ने युवाओं को इतना अभिलाषी बना दिया है। हसीन सपनों को पूरा करने कि लिये तरक्की के शॉर्ट कट रास्ता भी अपनाने से नहीं हिचकते है और चाहत उन्हे अपराध की दुनिया मे घसीट रही है। ज़िन्दगी को सिगरेट के धुएं के छल्ले में उड़ायें जा रहे हैं. जल्दी क़ामयबी की आस मे रिश्तों को को भी ताख पर रखने से बज नहीं आते. इस हाय बाय और कम्पयूटर वाले युग मे ज़रुरत इस बात कि है आधुनिक होती जीवनशैली और हमारे जो मूल्य हैं उनके बीच एक सन्तुलन क़ायम रखा जाय। हमे इस बात को भी समझ लेना चाहिये कि यह सब चीज़ें कभी भी देश के विकास और खु़द के तरक्की के पर्याय नही बन सकते हैं।
बेशक उदारीकरण ऐसी चीज़े हैं जिससे देश या समाज अछूता नही रह सकता है। लेकिन ऐसा भी नही है कि इसके बिना नही रहा जा सकता। ज़रुरत इस बात कि आधुनिकता का दामन छोडे़ बिना अपनी मौलिकता, अपनी पहचान को बनायें रखें वैसे भारत की पहचान ही आधुनिकता और परम्पराओं को साथ लेकर चलने वाले देश से होती है। वास्तव मे यहीं हमरी असली पहचान भी है। और अन्त मे "युवा ही हमारी असली ताक़त है"।
"राहें दुश्वार भी हो सकती है सफ़लता के मंजिल के लिये
हमको फिर भी गिर-गिर कर संभलना होगा।
वक़्त चाहेगा काँटों पर भी चलेंगे,
हमे अपनी हिम्मत से जमाने को बदलना होगा.
मंजिल पाने की दिल मे ऐसी कसक कि
हम जो चाहे तो पत्थर को भी पिघलना होगा।"