Sunday, April 12, 2009

लोकतन्त्र का मतलब - सरकार बनाने की प्रक्रिया में सबकी समान रूप से भागीदारी.......

आज के दौर चुनाव आयोग कही ज़्यादा मज़बूत होकर उभरा है। अगर यह संभव हुआ है तो केवल मीडिया के प्रसार , आम लोगों कि जगरुकता और इन सबसे बढकर आधुनिक तकनिकी के करण। बूथ कैप्चरिंग ,आम लोगों को डरा धमका कर ज़बरदस्ती वोट डलवना अब गुज़रे ज़माने कि बात रही। मतदान पहले से काफ़ी शान्तिपूर्ण और निष्पक्ष तरिक़े से सम्पन्न होने लगें है।
इन सबके बावज़ूद आज का मतदाता वैचारिक और सामाजिक तौर पर कमज़ो हो गया है, साथ ही लोकतन्त्र अपरिपक्व। लोकतन्त्र का मतलब सरकार बनाने की प्रक्रिया मे समाज के हर तबके की भागीदारी। यानि सदन मे जनता के ऐसे प्रतिनिधि होने चाहिये जो हमारे और आपकी आवाज़ को सदन के समक्ष रखे और उनका समाधान करे, साथ ही शर्त यह भी होनी चाहिये कि वो हमारे बीच का हो और आम आदमी के भावनाओं को समझे। लेकिन ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज राजनिति मे बाहुबलिओ, धनबलिऒ और अपराधी छवि के नेताओं का बोलबला है।उपर से परिवारवाद की राजनिति। ये लोग राजनिति मे आये तो केवल अपने नकारात्मक रुतबे के कारण, न कि सामाजिक सोच और जनता के बीच लोकप्रियता के कारण।
इस बात मे कोई शक नही कि आज के ग़रीब,मज़दूर जनता पहले से कही ज़्यादा जागरूक है। इन सबके बावज़ूद वो परेशान और असमंजस की स्थित मे है, कारण धर्म,जाति और हिंसा का राजनिति मे आना और उस पर हावी होना । शायद यहीं कारण है छोटे-छोटे राजनितिक दल कहीं अधिक मज़बूत होकर उभरें हैं।क्यों उनका केवल और केवल एक मक़सद है जनभवनओं को भड़का कर वोट बटोरना। पार्टियों की संख्या कुकुरमुत्तो की तरह तेज़ी से बढीं हैं।इससे कयास तो ये भी लगाये जाने चाहिये सभी वर्गों का लोकतन्त्र मे समान रूप से भागीदारी हो रही है। लेकिन यह सिर्फ़ कहने को है । राष्टीय दलों के पास विकास की कोई ठोस निति न होने के कारण उनका अस्तित्व ही ख़तरे मे पड़ गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकतन्त्र का स्वरूप और चरित्र बहुत तेज़ी से बदला । यानि कुर्सी का लालच लोकतन्त्र को लोभतन्त्र मे बदल दिया है। इस लिहाज से देखें तो कोइ भी पार्टी दूध का धुला नही है।सभी पार्टियों मे अपराधिक छवि के राजनेता भरें हुये हैं। किसी भी पार्टी की साख विश्वसनीयता लायक है नही ! तो किस पार्टी को सत्ता के केन्द्र मे लाया जाय ? किस पर भरोसा किया जाय? यह एक अहम सवाल है लोगो के सामने लेकिन अगर लोकतन्त्र को बनाये रखना है तो मतदान तो करना ही होगा। आख़िर एक तानाशाही सरकार से अच्छी एक भ्रष्ट लोकतन्त्रिक सरकार जो अच्छी जो होती है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें
अवधेश कुमार मौर्य. जमिया मिल्लिया इस्लामिया
मीडिया स्टूडेन्ट

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परिवर्तन की अग्नि तो युवाओं के हाथ में तो है ही....


पूरे विश्व मे देशों की कमान युवाओं के हाथ मे है। लेकिन भारत एक ऐसा देश है जिसकी कमान आज भी बूढों के भरोसे है।उसका मेन कारण है की आज भी युवा भारतीय राजनिति से दूर है। पिछले कूछ वर्षों मे युवाओं क अनुपात बढा़ है।लेकिन इसमें हक़ीकत कितना है ? क्या वास्तव में युवा राजनिति मे आ रहे है।
जी नही! राजनिति के प्रति युवाओं का नज़रिया अच्छा नही है। उनके लिये राजनिति एक 'डर्टी गेम' है । और हो भी क्यों न ! अब ऐसा कौन नेता ऐसा है जिसकी छवि एक अच्छे राजनेता की है। या फिर अपने व्यक्तिगत हितों से उपर उठ कर देशहित या आम लॊंगों के लिये काम करता है। आकड़ो के लिहाज से देखे तो आज देश में क़रीब 54 % युवा हैं और कुल क़रीब 70 करोड़ मतदाता। यानि देश का भाविष्य ही युवाओं के हाथ मे है। इनसब के बावजूद केवल 25% - 30% ही राजनिति मे जाना पसन्द करतें हैं। और क़रीब आज इतने ही % केवल संसद मे है। या फिर न के बराबर।
वास्तविकता भी यहीं है। अगाथा, सचिन से लेकर सन्दीप या फिर उमर अब्दुल्लाह जो आज राजनिति मे सक्रिय हैं सभी को राजनिति विरासत मे मिली है। या फिर कुछ युवा ऐसे हैं जिनकी लोकप्रियता या कुख़्यातपन को राजनितिक पार्टीयों ने भुनाया और उनको संसद के गलियरों तक पहुचाय , जिनका सामाजिक सारोकारों से दूर -दूर तक कोई रिश्ता ही नही है। यहां एक सवाल यह भी है कि क्या केवल लोकप्रिय होना एक अच्छे उम्मीदवार कि परिभाषा हो सकती है? कभी नही लेकिन यह एक कड़वा सत्य है और आज दुषित राजनिति कि मांग भी। आख़िर भारतीय राजनिति के इस काले अध्याय को समाप्त कैसे किया जाय ? क्या चुनाव लडने के लिये न्यूनतम योग्यता होनी चाहिये ? या फिर राजनिति को गोलमा देवी , राबड़ी देवी जैसे कम पढे-लिखे लोग या फिर मुख़्तार अन्सारी,अरुण गवली जैसे आरोपियॊं के लिये राजनिति का प्रवेश द्वार हमेशा के लिये खोल दिये जाने चाहिये। लेकिन एक बत तो है कि जब तक कि राजनिति का चेहरा पूरी तरह से साफ़ नही हो जाता, मुश्किल है कि युवाओं का झुकाव राजनिति कि तरफ़ हो। संजय दत्त , शहाब्बुद्दीन जैसे अपराधियों को चुनाव न लडने कि इजाज़त न देकर सुप्रीम कोर्ट ने ज़रूर एक उम्मीद की किरण दिखायी है। अन्यथा परिवर्तन की अग्नि तो युवओं के हाथ मे तो ही
कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें .
अवधेश कुमार मौर्या, मीडिया स्टूडेंट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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