Tuesday, May 5, 2009

क्या लोकतंत्र को बदलने कि जरुरत है .........

सही मायनो में लोकतान्त्रिक व्यवस्था अब नकारा साबित हो चली है और इसे बदलने की ज़रूरत है ...

कुछ भी हो हर एक चीज की एक उच्चतम अवस्था होती है। कभी न कभी उसका अस्तित्व ख़तरे मे पडता है।कारण चाहे जो कुछ भी हो। मुम्बई में 26/11 की घट्ना के बाद जिस तरीके से हज़ारों लोग सड़को पर उतरे , अपने आक्रोश को जाहिर किया। ऐसा लगा वे राजनैतिक तौर पर या इस देश का जिम्मेदार नागरिक के नाते सत्ता या फिर राजनैतिक व्यवस्था मे एक बद्लाव को देख्नना चाहते थे या लाना चाहते थे , जो वास्तव मे मौजूदा दौर के राजनीति की ज़रूरत है। शायद क्षणिक ही सही लेकिन वे पल राजनीति को आईना दिखाने की कोशिश भी थी।

लेकिन ये सारी की सारी चीज़े धरी की धरी रह गई जब मुम्बई मे मतदान का % ( 45%) सामने आया। जो कि अत्यंत निराशाजनक और हतोत्साहित करने वाला था । मुम्बई घटना के बाद लोगो मे जो एक परिवर्तन की किरण जगी थी वो कहीं लोगों के लोकतन्त्र के महापर्व यानि चुनाव के प्रति अविश्वास के उजाले मे खो गई। दरअसल यह समाज का वो तबका जो पढ़ा- लिखा है,समाज मे रहता है ,लेकिन सामाजिक जीवन, वोट की ताक़त और लोकतन्त्र के मायने नही समझता। 



समाज से बिल्कुल कटे हुये, ये लोग इन्डिया के नागरिक है न कि भारत के। ये लोग फ्लड लाईटों के रोशनी में ऎतिहासिक ईमारतों पर मोम्बत्तियां तो जला सकते है लेकिन धूप में मतदान नही कर सकते। अगर मतदान के मामले में भारत और इन्डिया का मुक़ाबला हो तो निश्चित तौर पर भारत की ही जीत होगी। यानी हिन्दुस्तान मे लोकतन्त्र जीवित है तो भारत के भरोसे न कि इन्डिया की बदौलत।

तो क्या इसका मतलब ये समझा जाय कि वोट करना शैक्षिक, आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों की निशानी है? या फिर सही मायनो में लोकतान्त्रिक व्यवस्था अब नकारा साबित हो चली है और इसे बदलने की ज़रूरत है ?



Awadhesh kumar Maurya 
awadhesh.1987@gmail.com