Thursday, August 27, 2009

युवा होने का मतलब है .........?


युवा होने का मतलब .......?


क्या युवा होने का मतलब सिर्फ़ 18-40 की उम्र का होना है या फिर उसके लगन,संघर्ष,हौसले या फिर उसकी नई सोच से लगाई जानी चाहिए जो किसी भी चीज़ को अपनी ताक़त और सोच के बदौलत सही दिशा मे मोड़ सकता है। दरअसल ये सवाल इसलिये उठ रहे हैं कि आज के समय मे युवा होने की मायने बदल गये हैं। युवा होने का मतलब आधुनिक होती जीवन शैली, झूठी शानो-शौकत या फिर दिखावे की ज़िंदगी से हो गया है।


दरअसल वैश्वीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया से पूरी दुनिया मे जो सामाजिक और आर्थिक बदलाव आये, उसने युवाओं की सोच को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। जाहिर है कि  इससे हम यानी भारत के युवा भी अछूते नही रहे। पश्चिमी देशों की तर्ज़ पर हमारे यहाँ भी उनका क्लोन तैयार हो रहा है जो मंदिर जाने के बजाय पब, क्लब और डिस्को मे जाना पसन्द करता है। ग्लैमर और फैशन की चकाचौंध में आकर अपने अस्तित्व को  खोता जा रहा है। संस्कारों, मर्यादाओं और आदर्शों को रौंदते हुये बनावटी सपनों को पाने की ललक इतनी तीव्र हो चुकी है कि पारिवारिक रिश्तों का विखण्डन या फिर उन्हे ताक पर रखना कोई मयाने नही रखता, लिहाजा युवाओं के सोचने, समझने और देखने के नज़रिये मे व्यापक बदलाव आया है और मानसिकता हर प्रकार संबन्धों और रिश्तों को स्वार्थ भरी नज़रों से देखने की बन गई है। 


वैश्वीकरण वैश्वीकरण और हमारी बदलती हुई मानसिकता की वजह से आज की ज़रुरते, रोटी , कपड़ा कापी किताब से इतर सेलफोन, इंटरनेट और फिल्में मे स्थानात्तरित हो गई है और इन सब चीजों में इतने तल्लीन हो गए है कि उचित और अनुचित के बीच का फर्क लगभग समाप्त हो गया है। यही वजह है कि पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों की बागडोर लगातार दरकती जा रही है।


परिवेश को युवा पीढी़ के प्रागतिशील सोच, विचार के अनुरूप ढ़लना चाहिये न कि युवाओं को इसके अनुरूप ढ़लना चाहिये । वर्तमान परिवेश ने युवाओं को इतना अभिलाषी बना दिया है। हसीन सपनों को पूरा करने कि लिये तरक्की के शॉर्ट कट रास्ता भी अपनाने से नहीं हिचकते है और चाहत उन्हे अपराध की दुनिया मे घसीट रही है। ज़िन्दगी को सिगरेट के धुएं के छल्ले में उड़ायें जा रहे हैं. जल्दी क़ामयबी की आस मे रिश्तों को को भी ताख पर रखने  से बज नहीं आते. इस हाय बाय और कम्पयूटर वाले युग मे ज़रुरत इस बात कि है आधुनिक होती जीवनशैली और हमारे जो मूल्य हैं उनके बीच एक सन्तुलन क़ायम रखा जाय। हमे इस बात को भी समझ लेना चाहिये कि यह सब चीज़ें कभी भी देश के विकास और खु़द के तरक्की के पर्याय नही बन सकते हैं।


बेशक उदारीकरण ऐसी चीज़े हैं जिससे देश या समाज अछूता नही रह सकता है। लेकिन ऐसा भी नही है कि इसके बिना नही रहा जा सकता। ज़रुरत इस बात कि आधुनिकता का दामन छोडे़ बिना अपनी मौलिकता, अपनी पहचान को बनायें रखें वैसे भारत की पहचान ही आधुनिकता और परम्पराओं को साथ लेकर चलने वाले देश से होती है। वास्तव मे यहीं हमरी असली पहचान भी है। और अन्त मे "युवा ही हमारी असली ताक़त है"।


"राहें दुश्वार भी हो सकती है सफ़लता के मंजिल के लिये
हमको फिर भी गिर-गिर कर संभलना होगा।
वक़्त चाहेगा काँटों पर भी चलेंगे,
हमे अपनी हिम्मत से जमाने को बदलना होगा.
मंजिल पाने की दिल मे ऐसी कसक कि
हम जो चाहे तो पत्थर को भी पिघलना होगा।"

aapkiawaj.blogspot.com




Tuesday, May 5, 2009

क्या लोकतंत्र को बदलने कि जरुरत है .........

सही मायनो में लोकतान्त्रिक व्यवस्था अब नकारा साबित हो चली है और इसे बदलने की ज़रूरत है ...

कुछ भी हो हर एक चीज की एक उच्चतम अवस्था होती है। कभी न कभी उसका अस्तित्व ख़तरे मे पडता है।कारण चाहे जो कुछ भी हो। मुम्बई में 26/11 की घट्ना के बाद जिस तरीके से हज़ारों लोग सड़को पर उतरे , अपने आक्रोश को जाहिर किया। ऐसा लगा वे राजनैतिक तौर पर या इस देश का जिम्मेदार नागरिक के नाते सत्ता या फिर राजनैतिक व्यवस्था मे एक बद्लाव को देख्नना चाहते थे या लाना चाहते थे , जो वास्तव मे मौजूदा दौर के राजनीति की ज़रूरत है। शायद क्षणिक ही सही लेकिन वे पल राजनीति को आईना दिखाने की कोशिश भी थी।

लेकिन ये सारी की सारी चीज़े धरी की धरी रह गई जब मुम्बई मे मतदान का % ( 45%) सामने आया। जो कि अत्यंत निराशाजनक और हतोत्साहित करने वाला था । मुम्बई घटना के बाद लोगो मे जो एक परिवर्तन की किरण जगी थी वो कहीं लोगों के लोकतन्त्र के महापर्व यानि चुनाव के प्रति अविश्वास के उजाले मे खो गई। दरअसल यह समाज का वो तबका जो पढ़ा- लिखा है,समाज मे रहता है ,लेकिन सामाजिक जीवन, वोट की ताक़त और लोकतन्त्र के मायने नही समझता। 



समाज से बिल्कुल कटे हुये, ये लोग इन्डिया के नागरिक है न कि भारत के। ये लोग फ्लड लाईटों के रोशनी में ऎतिहासिक ईमारतों पर मोम्बत्तियां तो जला सकते है लेकिन धूप में मतदान नही कर सकते। अगर मतदान के मामले में भारत और इन्डिया का मुक़ाबला हो तो निश्चित तौर पर भारत की ही जीत होगी। यानी हिन्दुस्तान मे लोकतन्त्र जीवित है तो भारत के भरोसे न कि इन्डिया की बदौलत।

तो क्या इसका मतलब ये समझा जाय कि वोट करना शैक्षिक, आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों की निशानी है? या फिर सही मायनो में लोकतान्त्रिक व्यवस्था अब नकारा साबित हो चली है और इसे बदलने की ज़रूरत है ?



Awadhesh kumar Maurya 
awadhesh.1987@gmail.com

Sunday, April 26, 2009

कहां गये हमारे वो नेता……







कहां गये हमारे वो नेता……
एक कहावत है हमाम मे सभी नंगे है। कोइ भी दूध का धूला नही है। पहले राजनिति मे ऐसे लोग आते थे जो क्रान्तिकारी थे या वे लोग जिनके पास एक सामाजिक सोच थी, वे देश और देश की ग़रीब जनता के लिये कुछ करना चाहते थे।वो भी एक दौर था आज भी एक दौर है।समय तेजी़ से बद्ला है साथ ही राजनिति का स्वरूप भी। सत्ता के शीर्ष से लेकर नीचले पयदान तक सभी एक रंग मे रंगे हुये हैं। चाहे बात प्रधानमंत्री की हो या लाल कृष्ण आडवाणी की या फिर किसी भी राजनितिक दल के कार्यकर्ता की हो, सभी पर दूषित राजनीति हावी है।

वर्तमान मे नेता होने का मतलब है शाही रुतबा. लोगों के बीच नेता जी का ख़ौफ़, और साथ ही अपराधिक प्रवति का होना भी नेता जी की एक ख़ास पहचान है और राजनीति का मतलब है कौन,किससे अधिक से अधिक से अशब्द या अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर सकता है और एक दूसरे से नीचा दिखा सकता है। आज के नेताओं के बीच इस बात की होड़ चल रही है कि कौन ज़्यादा से ज़्यादा जहरीले, उत्तेजक भाषणों के जरिये जन भावनाओं को भड़का सकता है। राज ठाकरे , वरुन गांधी और आदित्यनाथ जैसे नेता इनके उदारहण भी है। तू तू मैं मैं की इस राजनिति मे याद आती है आज लालबहादुर शास्त्री, जवाहर लाल नेहरु. और अटल बिहारी जैसे नेताओं की। इनमे से मैने केवल अटल जी को बोलते हुये सुना है। उनकी भाषण शैली , बोलने की कला लाजवाब थी। उसका लोगों पर गहरा असर पड़ता था। लोग घण्टों भी खड़े रहकर उनको सुनते थे। लेकिन आज के नेता तालियां तो बटोरते है उनके भाषणों का जनमानस के उपर कोइ भी असर दिखाई नही पड़ता।

 इन सब का परिणाम यह हुआ है कि राजनीति का स्तर बहुत तेज़ी से गिरा है।राजनिति का लगातार नैतिक पतन होता जा रहा है यही कारण है कि आज राजनीति को अच्छे नज़रिए से नही देखा जा रहा है। खा़सकर युवा तो कत्तई इसमे नही आना चाहते। इससे राजनिति मे वंशवादी परम्परा को भी बढ़ावा मिल रहा है। इन सब के बीच सवाल यह भी उठता है कि देश के सामाजिक पतन के लिये क्या राजनैतिक पतन ज़िम्मेदार नही है? लेकिन इन सब के बावज़ूद आज ऐसे भी नेता है जो है जो मुदों की बात करते है , ऐसे माहौल मे रहअकर भी अपने कर्तब्यों को नही भूले हैं। उमर अब्दुल्लाह , सचिन पायलट , राहुल गांधी जैसे अनेक नेता है जो जो मौज़ूदा दौर के राजनीति को आइना दिखाने की कोशिश कर रहें है।

इन सब के बीच हमें यह नही भूलना चाहिये कि आख़िरकार राजनीति के मंजिल का रास्ता हमारे ही समाज के गलियारों से होकर गुजरता है।राजअनीति मे भ्रष्टाचार और नेताओं की मौकापरस्ती के लिये केवल नेता ही जिम्मेंदार नही हैं।कहीं न कहीं तो हम भी उसके लिये जिम्मेदार है। अच्छी सोच रखेन रखें और अच्छे नेता चुने।

Awadheh Kumar Maurya 
Awadhesh.1987@gmail.com

Thursday, April 23, 2009

हमारी धरती और पर्यावरण- हमारी पृथ्वी प्रकृति की अनमोल धरोहर है.....



क्या वास्तव मे हम अपने शहरो, गांवो , नगरों या फिर एक नयी दुनिया का निर्माण कर रहें हैं। देख्नने या सोचने मे जितना हक़ीकत लगता है वास्तविकता इससे कहीं अलग है। लोग इस पर अलग अलग राय रख सकते हैं । एक तरफ़ हम किसी चीज़ को बनाते हैं तो दुसरी तरफ़ हम विकास कि सम्भावनाओं को ख़त्म कर देते हैं। 


इस भौतिकतावादी युग में लोग बिना सोचे समझे वस्तुओं का उपभोग कर रहें हैं। कल 'earth day' इस बात का एहसास कराने के लिये की हमारी धरती ख़तरे में है। मीडिया ने भी अपने - अपने तरीक़े से लोगों मे एक अलख़ जगाने की कोशिश की। आज के दौर मे अधिकतर लोग जागरुक है लेकिन कर्तब्यनिष्ठ नही। समस्यायें सामने इसलिये भी सामने आती है क्योंकि उनको ये पता नही कि आख़िर शुरुआत कैसे करें? कहां से करें। यह भी हमारे देश का दुर्भाग्य और अजीब विडंबना है कि जो लोग सोचते हैं वो कर नही सकते लेकिन जो करने लायक है (हमारे देश के नेता) वो कभी सोचते नही। इस देश में ऐसे लोगों की कमी नही जो अपने भोग विलासी जीवन मे ही खोये रहते हैं या फिर कुछ ऐसे होते है पानी पीने के लिये हर रोज़ एक नया कुआं खोदते है यानि पूरा का पूरा दिन दो वक़्त की रोटी कमाने मे ही निकल जाता हैं। 

समाज का हर तबका सभी चीज़ों को उपभोग के नज़रिये से देख़ने लगा है शायद यहीं कारण है की आज धरती और प्रकृति अपने अस्तित्व को बचाने के लिये संघर्ष कर रही है।


भारत विभिन्न सभ्यताओं , संस्कृतियों और प्राकृतिक विविधताओं से भरा हुआ एक प्राचीन देश है। यहां के जंगल, पहाड़ और इसमें बसने वाले जीव जन्तु हमारी अनमोल धरोहर और प्राकृतिक विरासत है । लोगों ये नही मालूम हमे जीवित रहने के लिये जितना ज़रुरी रोटी , कपड़ा मकान की होती है उससे कहीं ज़्यादा इन सभी प्राकृतिक धरोहरों की ।हमें इन सभी को बचाकर रख्नना है इनके बिना ख़ुद के जीवन की कल्पना मुश्किल है। इसकी शुरुआत खु़द के घरो या पास पड़ोस से कर सकते हैं।



भौतिक वस्तुओं का उपयोग और उपभोग कम से कम करें या फिर अति आवश्यक्ता पर ही करें ।
अधिक से अधिक पेड़ - पौधों को लगायें और साथ ही जंगलों को कट्ने से बचायें।
प्राकृतिक वस्तुओं का सदुपयोग करें न कि उपभोग या फिर दुपर्योग।

Awadhesh kumar maurya
awadhesh.1987@gmail.com





Sunday, April 12, 2009

लोकतन्त्र का मतलब - सरकार बनाने की प्रक्रिया में सबकी समान रूप से भागीदारी.......

आज के दौर चुनाव आयोग कही ज़्यादा मज़बूत होकर उभरा है। अगर यह संभव हुआ है तो केवल मीडिया के प्रसार , आम लोगों कि जगरुकता और इन सबसे बढकर आधुनिक तकनिकी के करण। बूथ कैप्चरिंग ,आम लोगों को डरा धमका कर ज़बरदस्ती वोट डलवना अब गुज़रे ज़माने कि बात रही। मतदान पहले से काफ़ी शान्तिपूर्ण और निष्पक्ष तरिक़े से सम्पन्न होने लगें है।
इन सबके बावज़ूद आज का मतदाता वैचारिक और सामाजिक तौर पर कमज़ो हो गया है, साथ ही लोकतन्त्र अपरिपक्व। लोकतन्त्र का मतलब सरकार बनाने की प्रक्रिया मे समाज के हर तबके की भागीदारी। यानि सदन मे जनता के ऐसे प्रतिनिधि होने चाहिये जो हमारे और आपकी आवाज़ को सदन के समक्ष रखे और उनका समाधान करे, साथ ही शर्त यह भी होनी चाहिये कि वो हमारे बीच का हो और आम आदमी के भावनाओं को समझे। लेकिन ये हमारा दुर्भाग्य है कि आज राजनिति मे बाहुबलिओ, धनबलिऒ और अपराधी छवि के नेताओं का बोलबला है।उपर से परिवारवाद की राजनिति। ये लोग राजनिति मे आये तो केवल अपने नकारात्मक रुतबे के कारण, न कि सामाजिक सोच और जनता के बीच लोकप्रियता के कारण।
इस बात मे कोई शक नही कि आज के ग़रीब,मज़दूर जनता पहले से कही ज़्यादा जागरूक है। इन सबके बावज़ूद वो परेशान और असमंजस की स्थित मे है, कारण धर्म,जाति और हिंसा का राजनिति मे आना और उस पर हावी होना । शायद यहीं कारण है छोटे-छोटे राजनितिक दल कहीं अधिक मज़बूत होकर उभरें हैं।क्यों उनका केवल और केवल एक मक़सद है जनभवनओं को भड़का कर वोट बटोरना। पार्टियों की संख्या कुकुरमुत्तो की तरह तेज़ी से बढीं हैं।इससे कयास तो ये भी लगाये जाने चाहिये सभी वर्गों का लोकतन्त्र मे समान रूप से भागीदारी हो रही है। लेकिन यह सिर्फ़ कहने को है । राष्टीय दलों के पास विकास की कोई ठोस निति न होने के कारण उनका अस्तित्व ही ख़तरे मे पड़ गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकतन्त्र का स्वरूप और चरित्र बहुत तेज़ी से बदला । यानि कुर्सी का लालच लोकतन्त्र को लोभतन्त्र मे बदल दिया है। इस लिहाज से देखें तो कोइ भी पार्टी दूध का धुला नही है।सभी पार्टियों मे अपराधिक छवि के राजनेता भरें हुये हैं। किसी भी पार्टी की साख विश्वसनीयता लायक है नही ! तो किस पार्टी को सत्ता के केन्द्र मे लाया जाय ? किस पर भरोसा किया जाय? यह एक अहम सवाल है लोगो के सामने लेकिन अगर लोकतन्त्र को बनाये रखना है तो मतदान तो करना ही होगा। आख़िर एक तानाशाही सरकार से अच्छी एक भ्रष्ट लोकतन्त्रिक सरकार जो अच्छी जो होती है। कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें
अवधेश कुमार मौर्य. जमिया मिल्लिया इस्लामिया
मीडिया स्टूडेन्ट

http://www.aapkiawaj.blogspot.com/]


परिवर्तन की अग्नि तो युवाओं के हाथ में तो है ही....


पूरे विश्व मे देशों की कमान युवाओं के हाथ मे है। लेकिन भारत एक ऐसा देश है जिसकी कमान आज भी बूढों के भरोसे है।उसका मेन कारण है की आज भी युवा भारतीय राजनिति से दूर है। पिछले कूछ वर्षों मे युवाओं क अनुपात बढा़ है।लेकिन इसमें हक़ीकत कितना है ? क्या वास्तव में युवा राजनिति मे आ रहे है।
जी नही! राजनिति के प्रति युवाओं का नज़रिया अच्छा नही है। उनके लिये राजनिति एक 'डर्टी गेम' है । और हो भी क्यों न ! अब ऐसा कौन नेता ऐसा है जिसकी छवि एक अच्छे राजनेता की है। या फिर अपने व्यक्तिगत हितों से उपर उठ कर देशहित या आम लॊंगों के लिये काम करता है। आकड़ो के लिहाज से देखे तो आज देश में क़रीब 54 % युवा हैं और कुल क़रीब 70 करोड़ मतदाता। यानि देश का भाविष्य ही युवाओं के हाथ मे है। इनसब के बावजूद केवल 25% - 30% ही राजनिति मे जाना पसन्द करतें हैं। और क़रीब आज इतने ही % केवल संसद मे है। या फिर न के बराबर।
वास्तविकता भी यहीं है। अगाथा, सचिन से लेकर सन्दीप या फिर उमर अब्दुल्लाह जो आज राजनिति मे सक्रिय हैं सभी को राजनिति विरासत मे मिली है। या फिर कुछ युवा ऐसे हैं जिनकी लोकप्रियता या कुख़्यातपन को राजनितिक पार्टीयों ने भुनाया और उनको संसद के गलियरों तक पहुचाय , जिनका सामाजिक सारोकारों से दूर -दूर तक कोई रिश्ता ही नही है। यहां एक सवाल यह भी है कि क्या केवल लोकप्रिय होना एक अच्छे उम्मीदवार कि परिभाषा हो सकती है? कभी नही लेकिन यह एक कड़वा सत्य है और आज दुषित राजनिति कि मांग भी। आख़िर भारतीय राजनिति के इस काले अध्याय को समाप्त कैसे किया जाय ? क्या चुनाव लडने के लिये न्यूनतम योग्यता होनी चाहिये ? या फिर राजनिति को गोलमा देवी , राबड़ी देवी जैसे कम पढे-लिखे लोग या फिर मुख़्तार अन्सारी,अरुण गवली जैसे आरोपियॊं के लिये राजनिति का प्रवेश द्वार हमेशा के लिये खोल दिये जाने चाहिये। लेकिन एक बत तो है कि जब तक कि राजनिति का चेहरा पूरी तरह से साफ़ नही हो जाता, मुश्किल है कि युवाओं का झुकाव राजनिति कि तरफ़ हो। संजय दत्त , शहाब्बुद्दीन जैसे अपराधियों को चुनाव न लडने कि इजाज़त न देकर सुप्रीम कोर्ट ने ज़रूर एक उम्मीद की किरण दिखायी है। अन्यथा परिवर्तन की अग्नि तो युवओं के हाथ मे तो ही
कृपया अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें .
अवधेश कुमार मौर्या, मीडिया स्टूडेंट, जामिया मिल्लिया इस्लामिया
http://www.aapkiawaj.blogspot.com/




Thursday, March 26, 2009

'कंप्यूटर की दुनिया और हिन्दी कार्यशाला ' मेरा अनुभव बढ़िया रहा । मैंने इन्टरनेट की दुनिया से परिचित तो था लेकिन इतना हिन्दी की पहुच कंप्यूटर की दुनिया में इतना हो सकता है मैंने कभी सोचा न था । वास्तव में आज कंप्यूटर में या फिर नेट की दुनिया में हिन्दी की पहुच ने मत्री भाषा को एक नया आयाम दिया है।
हिन्दी युग्म ,ब्लोगवाणीऔर ऐसी बहुत से साईट है हिन्दी के प्रसार में लगे हुए हैं । ये हमारी भाषा के लिए एक अच्छी बात है ।
लकी अभी भी जरूरत है कि इसके प्रचार और प्रसार के लिए और प्रयास किया जाय

Tuesday, January 20, 2009

जिस राष्ट्र में मीडिया गुलाम हो, वहां स्वस्थ लोकतंत्र मुमकीन नही है? लेकिन मुंबई हमले के बाद कुछ चैनलों ने अतिउत्साह में कमांडो कार्रवाई, होटल में मौजूद महत्वपूर्ण व्यक्तियों सहित कई ऐसे कवरेज प्रसारित किये, जिससे आतंकियों को मदद मिली। लेकिन यह तो पुरी तरह से मीडिया के स्वंत्रता का नाजायज़ फायदा लगा । मीडिया को भी अपनी समय सीमा तय कर लेनी चाहिए । है, ना?