Monday, October 15, 2012

मीडिया को सूली चढ़ाकर सत्ता की साख बचाने का फर्रुखाबादी खेल


मीडिया को सूली चढ़ाकर सत्ता की साख बचाने का फर्रुखाबादी खेल


कांपती जुबान से जैसे ही रंगी मिस्त्री ने कहा, उन्हें दो बरस पहले कान में सुनने के लिये लगाने वाली मशीन मिल गई थी, वैसे ही देश के कानून मंत्री सलमान खुर्शीद खुशी से ताली बजाने लगे। और झटके में मंत्रीजी के पीछे खडे दो दर्जन लोग भी हो-हो करते हुये तालियां बजाते हुये सलमान खुर्शीद जिन्दाबाद के नारे लगाने लगे। यह दिल्ली की उस प्रेस कॉन्फ्रेन्स की तस्वीर है, जिसे डा. जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट पर विकलांगों के लिये मिले भारत सरकार के बजट को हड़पने का आरोप लगने के बाद सफाई और सबूत देने के लिये खुद मंत्रीजी ने बुलवाया था। आरोप ने सलमान खुर्शीद की साख पर बट्टा लगाया तो प्रेस कान्फ्रेन्स में सलमान खुर्शीद ने अपने खिलाफ खबर बताने-दिखाने वाले चैनल और इंडिया टुडे ग्रुप के एडिटर-इन-चीफ और प्रोपराइटर अरुण पुरी की साख पर भी यह कहकर सवाल उठा दिया कि रुपर्ट मर्डोक की तर्ज पर जांच होनी चाहिये। सबूत के तौर पर फर्रुखाबाद में अपने गांव पितौरा के कासगंज मोहल्ला के 57 बरस के रंगी मिस्त्री को मीडिया का सामने परोस कर खुद को आरोपो से बरी मान लिया।



तो क्या वाकई सत्ता अब अपनी आलोचना तो दूर अपने खिलाफ किसी भी खबर को देखना-सुनना नहीं चाहती है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि पहली बार आरोपों का जवाब देने से पहले ही कानून मंत्री ने प्रेस कान्फ्रेन्स के नियम-कायदे यह कहकर तय किये कि वह जो मूल सवाल सोचते है, जवाब उसी का देंगे। और सड़क से उठने वाले सवालों से लेकर मीडिया के उन सवालो का जवाब नहीं देंगे, जिसे वह देना नहीं चाहते हैं। यानी मीडिया जिस खबर को दिखा रहा है, उसके मूल में ट्रस्ट की साख पर फर्जीवाडे का जो बट्टा लगा है, उस फर्जीवाड़े का जवाब और जो सवाल केजरीवाल ने सीधे मंत्रीजी से पूछे उनके जवाब को मंत्रीजी ने पहले ही प्रेस कान्फ्रेन्स के नियम से बाहर कर दिया। हालांकि प्रेस कॉन्फ्रेन्स में मीडिया के सवालो पर नो कमेंट कहकर बात आगे बढ़ायी भी जा सकती थी।



लेकिन पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेन्स में आजतक के रिपोर्टर दीपक शर्मा के सवाल पर मंत्रीजी ने धमकी दी, नाउ विल सी यू आन कोर्ट [अब अदालत में तुम्हे देखेंगे]। अगर याद कीजिये तो इमरजेन्सी के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेस में जब इंडिया-टुडे के पत्रकार सुमित मित्रा ने इंदिरा गांधी से सवाल किया तो इंदिरा गांधी ने कहा था, मैं एंटी इंडिया पत्रिका के सवाल का जवाब क्यों दूं। इस पर उस दौर में इंडिया-टुडे के एडिटर अरुण पुरी ने बाकायदा कवर स्टोरी की थी, जिसमें देवकांत बरुआ की प्रसिद्द टिप्पणी का जिक्र करते हुये लिखा था इंडिया इज इंदिरा और जो इंदिरा के खिलाफ है वह एंटी इंडिया है। हालांकि इंडिया टुडे की इस कवर स्टोरी के बाद अरुण पुरी इंदिरा सरकार के निशाने पर जंरुर आये। लेकिन कभी ऐसा मौका नहीं आया जब किसी मंत्री ने इंडिया टुडे के रिपोर्टर को सवाल पूछने पर कहा कि आदालत में देख लूंगा। असल में सवाल सिर्फ सलमान खुर्शीद का नहीं है अगर साख के सवाल पर आयेंगे तो सवाल मीडिया से लेकर राजनीति और संस्थानों से लेकर आंदोलन तक पर है। ढह सभी रहे हैं। इंडिया टुडे भी किस स्तर तक बीते दिनों में गिरा, यह कोई अनकही कहानी नहीं है और आजतक ने भी खबरों के नाम पर कैसे तमाशे दिखाये, यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन इसी दौर में राजनेताओं और कैबिनेट मंत्रियों को लेकर कैसी कैसी किस्सागोई मीडिया से लेकर सड़क तक पर हो रही है, यह भी किसी से छुपाने की चीज नहीं है। न्यूयार्क टाइम्स ने तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर रिपोर्ट लिखते लिखते एसएमएस में चलते उस चुटकुले तक का जिक्र कर दिया, जिसमें दांत के डाक्टर के पास जाकर भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुंह नहीं खोलते हैं।



जाहिर है इसका मतलब साख अब सत्ता के सिरहाने की चीज हो चुकी है। यानी जो सत्ता में रहे साख उसी की है। राडिया टेप आने के बाद भी सत्ताधारियों की साख की साख पर कोई बट्टा नहीं लगा। और उसमें शरीक मीडिया कर्मी भी बीतते वक्त के साथ दुबारा ताकतवर हो गये और सत्ता के साथ खड़े होने का लाइसेंस पा कर कहीं ज्यादा साख वाले संपादक माने जाने लगे। फिर साख का मतलब क्या अब सिर्फ जनता के बीत जाकर चुनाव जीतना है। क्योंकि कानून मंत्री ने अपने इस्तीफे के सवाल पर उल्टा सवाल यह कहकर दागा कि मैं इस्तीफा देता हूं तो अऱुण पुरी भी इस्तीफा दें। वह भी जनता के बीच जायें। जनता ही तय करेगी कि कौन सही है। तो जिस पत्रकारिता का आधार ही जनता के बीच साख के आसरे खड़ा होता है उसी की परिभाषा भी अब नये तरीके से गढ़ी जा रही है। या फिर चुनाव में जीत के बाद सत्ता संभालते और भोगते हुये राजनेता यह मान चुका है कि साख उसी की है, जो अगले पांच साल तक रहेगी। यानी सारी लड़ाई और सारे संस्थानों की बुनियादी साख को ही राजनीति के पैमाने में या तो मापने की तैयारी हो रही है या फिर अपनी साख बचाने के लिये हर किसी को अपने पैमाने पर खड़ा करने की सत्ता ने ठानी है। हो जो भी लेकिन इस दौर में राजनीतिक की साख भी कैसे धूमिल हुई है यह हेमवंती नंदन बहुगुणा के पोते साकेत बहुहुणा के चुनावी प्रचार और चुनावी हार से भी समझा जा सकता है। साकेत बहुगुणा को जिताने के लिये उत्तारांचल के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपनी और कांग्रेस की सारी ताकत वैसे ही चुनाव में झोंकी जैसे 1982 में हेमवंती नंदन बहुगुणा को हराने के लिये इंदिरा गांधी ने झोंकी थी। याद कीजिये तो मई 1981 से लेकर जून 1982 तक के दौरान इंदिरा गांधी हर हाल में हेमवंती नंदन बहुगुणा को हरवाना चाहती थी। पहली बार जमकर वोटों की लूट हुई तो चुनाव आयोग ने वोट पड़ने के बाद भी चुनाव रद्द कर दिया। दूसरी बार इंदिरा ने तारीखों को टलवाया और जून 1982 में जब मतदान हुआ तो उस चुनाव में बहुगुणा के टखने की हड्डी टूट गई थी। तो देहरादून में बुढिया के होटल से जाना जाने वाले होटल के कमरे में बेठकर ही उन्होंने गढवाल के हर गांव में सिर्फ एक पोस्टकार्ड यह लिखकर भेजा था, टखना टूटने से चल नहीं पा रहा हूं। चुनाव प्रचार करने भी आपके पास नहीं आ पाउंगा। आपके लिये जो किया है उसे माप तौल कर आप देखलेंगे। आपका हेमवंती नंदन बहुगुणा। तो पोस्टकार्ड में वोट देने को भी सीधे तौर पर नहीं कहा गया था। फिर भी 18 जून 1982 को चुनाव परिणाम आया तो बहुगुणा ने कांग्रेस के उम्मीदवार चन्द्र मोहन नेगी को 29,024 वोटो से हरा दिया था। तो सत्ता की ठसक को बहुगुणा ने अपनी उसी साख से हराया जिसे एक दौर में इंदिरा गांधी ने खारिज किया था।



लेकिन अब के दौर में नया सवाल यह है कि साख को लेकर जिस परिभाषा को कानून मंत्री सलमान खुर्शीद गढ़ रहे हैं, उस पर खरे उतरने से ज्यादा संस्थानों को ढहाते हुये साख बरकरार रखने का आ गया है। जाहिर है अऱुण पुरी तो चुनाव लड़ने मैदान में उतरेंगे नहीं और सलमान खुर्शीद पत्रकारिता के मिजाज को जीयेंगे नहीं। तो शायद साख की राजनीतिक परिभाषा को विकल्प के तौर पर सड़क से अरविन्द केजरीवाल गढ़ सकते हैं। क्योंकि इस वक्त इंडिया टुडे की रिपोर्ट और कानून मंत्री के अदालती घमकी के बीच आंदोलन लिये सड़क पर केजरीवाल ही खड़े हैं। और अब दिल्ली के घरना स्थल से उनका रास्ता सलमान खुर्शीद के राजनीतिक शहर फर्रुखाबाद ही जाता है। जहां जाकर वह सलमान को राजनीतिक चुनौती दें। क्योंकि पहली बार जनता को तय करना है की चुनाव में जीत का मतलब ही साख पाना है तो फिर फर्रुखाबाद भी साख की कोई नयी परिभाषा तो गढ़ेगा ही। तो केजरीवाल के ऐलान का इंतजार करें।

 आर्टिकल-पुन्य प्रसून बाजपयी

Wednesday, May 2, 2012

आम आदमी, आन्दोलन और संसद...


 आम आदमी, आन्दोलन और संसद...

बतौर एक आम नागरिक आज-कल जो कुछ हो रहा है उस पर आप सभी क्या सोचते है? आज जो भी अन्ना जी, बाबाराम देव जी  या अरविन्द जी कह रहे क्या उसमे कोई सच्चाई नहीं है? क्या संसद और सांसद की वजह से जनता का वजूद है या जनता की वजह से संसद और सांसद का? क्या जनता सर्वोपरि है या संसद और सांसद. क्या जिस जनता ने अपने शक्तियों को संसद और सांसद में निहित किया है उस जनता को सवाल पूछने या आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है?

सार्वजनिक मंच से जो कुछ भी ये कहा जा रहा है वो केवल उनकी नहीं, ये करोड़ो भारतीयों की है जो इस दूषित राजनितिक और प्रशासनिक व्यवस्था से परेशान हो चुके है. इसकी बानगी पिछले दिनों सड़को पर देखने को मिली. सामाजिक आइना की मूर्ति हमारी फिल्मे भी इसके गवाह है. इस देश के संसद में माननीय अरुण जेटली, कपिल सिब्बल, प्रणब जी जैसे लोग है तो राबड़ी देवी, गोलमा देवी जैसे लोग भी इसी प्रजातान्त्रिक संस्था के हिस्सा रही है. राजनिति या फिर हमारी संवैधानिक संस्थाओ में हत्या, लूट बलात्कार और भ्रष्टाचार के आरोपीओ की कोई कमी नहीं है. क्या ये लोकतंत्र के मंदिर को शर्मिंदा करने के लिए काफी नहीं है?

जो कुछ भी समाज में या देश में ऐसे हालत बने है क्या उसके लिए सभी राजनैतिक पार्टियों के साथ देश के प्रतिनिधि और भ्रष्ट प्रशासनिक व्वयस्था  जिम्मेदार नहीं  है? बिल्कुल! इस देश के तथाकथित माननीय सांसद, उनसे बनी संसद और इनके प्रति जवाबदेह प्रशासनिक व्यवस्था जिम्मेदार है. अगर ऐसी आलोचना सही है तो आलोचना की जानी चाहिए चाहे वो जो कोई  हो.

आम आदमी महगाई, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अव्यवस्था का शिकार है.
सिक्के की तरह सभी चीजो के दो पहलू होते है. अगर समाज में लूट-खसोट है    तो ईमानदारी भी है, झूठ है तो सच भी है, इन्हें पूरी तरह से हटाया नहीं जा सकता है. लेकिन चुनाव सुधार, न्यायिक व्यवस्था में  सुधार, राजनेताओं के लिए एक निश्चित मापदंड जैसी चीजे लाकर सुधार जा सकता है. समाज के लोग अपना कम करे और सरकार अपना. सरकार या माननीय सांसदों द्वारा आम लोगो के नोटिस भेजने के बजाय, भेजे जाने वाले कारणों पर विचार करे तो ये समस्या ही नहीं आयेगी और इससे हमारे संविधान, प्रजातंत्र और संसद की गरिमा बची रहेगी. 


अवधेश कुमार मौर्या
Awadhesh.1987@gmail.com

Wednesday, April 18, 2012

धर्म हमेशा से ही हमरे देश की सबसे बड़ी कमजोरी ...


चाट,पापडी, चटनी और खीर वाले बाबा- निर्मलजीत सिंह नरूला.

भारत एक ऐसा देश है जहाँ आप एक पालीथीन में एक ईट  का टुकड़ा रख कर घूरना शुरू कर दीजिये वहां भीड़ जमा हो जायेगी या फिर सड़क से एक बड़े पत्थर को तिलक लगा कर अगरबत्ती सुलगा दीजिये वही आस्था का केंद्र बन जायेगा. लोगो के इस भोलेपन, पढ़े-लिखे अनपढ़ होना या फिर  आवश्यकता से अधिक विश्वास करने की प्रवित्त का नाजायज़ फायदा उठा रहे है निर्मलजीत सिंह नरूला.

हमारे देश में पैसा कमाना बहुत आसान है बस आपके दिमाग में एक शातिर खुराफात होनी चाहिए और निर्मल उर्फ़ कथाकथित बाबा उसी खुराफात की देन  है. धर्म हमेशा से ही हमरे देश की सबसे बड़ी कमजोरी रही है, धर्म की आड़ में ये व्यापार हो रहा है.धर्म के नाम पर लोगो को गुमराह किया जा रहा है. किसी चीज़ में आस्था ठीक होती है लकिन अन्धविश्वास नहीं. धर्म के नाम  पर लोगो को बरगलाने की कोशिश की जा रही है.

सरकार के आखो के सामने जनता को मुर्ख बनाया जा रहा है. ये बाबा जो लोगो को चाट, पकौड़े, आचार और गुलाब जामुन खा कर कृपा बरसने की बात कर रहे क्या उसका कोई बैज्ञानिक, वैचारिक या अध्यात्मिक आधार है.

ऐसी भ्रम और अंधविश्व फ़ैलाने वाली मानसिकता को जल्द से जल्द बंद कर देना चाहिए.सभी लोगो इस प्रकार के घटिया मानसकिता बाले चीजो को बढावा नहीं देना चाहिए.

अवधेश कुमार मौर्या
awadhesh.1987@gmail.com

Friday, April 6, 2012

एक आम नागरिक भी कर सकता है जन शिकायत आयोग में पुलिस के खिलाफ शिकायत


एक आम नागरिक भी कर सकता है जन शिकायत आयोग में पुलिस के खिलाफ शिकायत

जन शिकायत आयोग (Public Grievances Commission)

एम-ब्लाक, विकास भवन , नई दिल्ली- 110002

फोन- 23379900  23379901
website- www.pgc.delhigovt.nic.in
Email- pgcdelhi@nic.in, pca.delhi@nic.in

अगर आप को किसी दिल्ली पुलिस के खिलाफ गंभीर दुर्व्यवहार की कोई शिकायत है तो आप भी जन शिकायत आयोग का दरवाजा खटखटा सकते है

इसमें कई चीज़े आती है

-पुलिस हिरासत में मृत्यु
-पुलिस के कारन लगने वाली चोटे
-बलात्कार या बलात्कार के प्रयास
-गैर क़ानूनी हिरासत या  उत्पीडन
-भूमि/मकान हड़पना या प्राधिकरण का कोइ अन्य गंभीर दुरूपयोग

यह व्यस्था केवल दिल्ली और एन सी आर, में लागू है.  आशा करते है ये व्यवस्था पूरे देश में लागू होगी ताकि आम लोगो को अनावश्यक पुलिसिया उत्पीडन से बचाया जा सके.

कृपया आम लोगी को इससे परिचित करने के लिए, और इस कानून के प्रति जागरूक बनाने के लिए इसे शेयर करे.  

Wednesday, April 4, 2012

खबरों को रफ़्तार देने के चक्कर में समाचार को बना दिया खो-खो और कब्बड्डी का खेल.

खबरों को रफ़्तार देने  के चक्कर में समाचार को बना दिया खो-खो और कब्बड्डी  का खेल.

शायद दूर-दराज़ के गावों या शहरो के लोगो के इस बात का कतई अंदाज़ा नहीं होगा कि शहरी लाईफ इतनी व्यस्त या भागम-भाग भरी होगी. इस बात का एहसास मुम्बई रेलवे स्टेशनों या फिर दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों पर भागती दौड़ती जिंदगी को देख कर लगाया जा सकता है .

लेकिन इन सब से इतर एक और चीज़ है जो इस बात का एहसास कराती है, वो है हमारे न्यूज़ चैनलों में दिखाए जानो वाले खबरों की रफ़्तार. या फिर यूँ कहें कि लोगो की भागती- दौड़ती ज़िन्दगी और उनमे समय के अभाव के नब्ज़ को चैनलों ने पकड़ा. क्योंकि ज्यादातर न्यूज़ चैनलों के प्रोग्राम शहरी दर्शको को फोकस करके बनाये और दिखाए जाते है. पिछले दो सालो में न्यूज़ चैनलों के कंटेंट में ज़रूर सुधार  आया है क्योंकि समाचारों से विपरीत दिखाई जाने वाले चीज़े समाचार चैनलों के अस्तित्व को नकार रही थी या उन पर एक सवालिया निशान लगा रही थी. 
  
            लेकिन चंद महीनो में जो सबसे बड़ा बदलाव आया वो है न्यूज़ चैनलों में खबरों की रफ़्तार. सभी के सभी चैनल चाहे वो बड़े ब्रांड हो या छोटे चैनल सब के सब खबरों को  रफ़्तार देने के चक्कर में पड़े है कुछ वैसे ही जैसे बचपन में हम और आप खो-खो और कब्बड्डी  का खेल खेलते थे. 

जब कि आज भी मीडिया संस्थानों में समाचारों के सिद्धांत में यही पढाया जाता है एक आईडियल स्टोरी एक से डेढ़ मिनट की होती है. लेकिन कोई चैनल 5 मिनट में पचास तो कोई 15 मिनट में दो सौ खबरें. यानि समाचारों के नाम केवल और केवल हेडलाइने ही बची है.

इसकी शुरुआत सबसे पहले टी वी टुडे नेटवर्क के चैनल तेज ने किया. उसके बाद से इसकी होड़ सी मच गयी. सबसे बड़ी बात यह कि  इससे न्यूज़ चैनलों के टी आर पी में इजाफा भी हुआ. और टी आर पी के दौड़ में वो  चैनल पीछे जो इस ट्रेंड अपना नहीं सके या फिर अपनाने में देरी कर रहे है. हा ये ज़रूर है कि अभी इंग्लिश इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी इससे दूर है.

आज कोई  राजधानी या शताब्दी के रफ़्तार से खबरे दिखा रहा है तो कोई बुलेट की रफ़्तार से भी तेज़,  तो कोई दुनिया का सबसे तेज बुलेटिन दिखा रहा है. पता नहीं इसके मापने का पैमाना बनाया क्या  होगा. बस टीवी स्क्रीन पर उभरते दो चहरे और फटा-फटा खबरे. और अंत में, आप लोग इस आर्टिकल को पढ़ क्या सोच रहे होगे लेकिन मेरा नजरिया अभी भी सकारात्मक है और उस दिन के इंतजार में हूँ जब हम और  आप रॉकेट, मिसाईल,  ध्वनि और प्रकाश की गति से भी तेज़  रफ़्तार से खबरे देखेगे.


अवधेश कुमार मौर्या,
नई दिल्ली,
awadhesh.1987@gmail.com

Tuesday, March 27, 2012

सवाल : कानून संविधान के मुताबिक संसद में बनते हैं वह संसद ही बनाएगी.

सवाल : कानून संविधान के मुताबिक संसद में बनते हैं वह संसद ही बनाएगी. 

ऐसा सवाल खड़ा करके हमारे राजनेता जनता की दिशाभूल कर रहे हैं. हमने एक बार नहीं सैंकडों बार कहा है कि संविधान के मुताबिक कानून संसद में ही बनते हैं. लेकिन लोकशाही यानि जनतंत्र अथवा प्रजातंत्र में कानून का मसौदा(ड्राफ्ट) बनाना है तो वह समाज के अनुभवी लोगों को लेकर, सरकार ने बनाना है. ऐसे मसौदे को इंटरनेट और दूसरे माध्यमों के ज़रिए देश की जनता के सामने रखा जाना चाहिए. जनता उस ड्राफ्ट को पढ़ेगी, कुछ कमियां दिखाई देंगी तो जनता सुझाव करेगी. जनता से मिले सभी सुझावों को लेकर संसद में रखा जाना चाहिए.
लोकशाही का मतलब है लोगों ने, लोगों के लिए, लोगों के सहभाग से चलाई हुई शाही. वह है लोकशाही? डा. बाबा साहब अंबेडकर जी ने संविधान को संसद में रखते हुए पहला शब्द दिया था – ”हम भारत के लोग”. २६ जनवरी १९५० में देश में प्रजा सत्ता का दिन मनाया गया. उसी दिन से जनता इस देश की मालिक हो गई. सरकारी तिजोरी में जमा होने वाला पैसा जनता का पैसा है. इस तिजोरी में से सरकार जो पैसा जमा या खर्च करती है उसका हिसाब किताब जनता को देना ज़रूरी है. कारण कि यही प्रजातंत्र है. उस पैसे के ऊपर जनता का कोई नियंत्रण न होने के कारण और उसका हिसाब किताब जनता को न दिए जाने के कारण भ्रष्टाचार बढ गया है.
जनता इस देश की मालिक है. संविधान के माध्यम से प्रतिनिधि लोकशाही को हम भारतवासियों ने स्वीकार किया है. राज्य की विधान सभा में जनता अपने प्रतिनिधि के रूप में, अपने सेवक के रूप में, विधायक को भेजती है और लोकसभा के लिए सांसद को भेजती है. संविधान कहता है कि जनता के सेवकों को जनता के विकास के लिए उनके पैसों का सही नियोजन करना है. इसलिए लोकसभा और विधानसभाओं को कानून बनाने हैं. लेकिन जनलोकपाल जैसा बिल आठ बार लोकसभा में आकर भी पास नहीं किया गया.
कानून लोकसभा में बनते हैं यह बात बराबर है लेकिन आठ बार लोकसभा में आकर भी बिल पास नहीं हुआ इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? जनता इस देश की मालिक है और मालिक ने अपने सेवकों को भेजा है. सेवक जब कानून नहीं बना रहे तो मालिक होने के नाते जनता को पूछने का हक है कि जनलोकपाल कानून क्यों नहीं बनाया गया?
हमारा संविधान अस्तित्व में आए ६३ साल बीत गए. लेकिन जनता देश की मालिक है और हम जनता के सेवक हैं यह बात इन सेवकों को समझ में नहीं आई. यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बात है. किसी दफ्तर में नागरिक अपने काम करवाने जाते हैं और कुछ पूछ लें तो कहा जाता है कि आप पूछने वाले कौन?”. जिस प्रकार जनप्रतिनिधियों को हम जनता ने अपने सेवक के रूप में भेजा है उसी प्रकार राष्ट्रपति जी ने जिन आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस. जैसे सनदी अधिकारियों का चयन किया वह भी गवर्नमेंट सरवेंट हैं. जनप्रतिनिधि एवं सभी सरकारी सेवक जनता के सेवक हैं. हमसे पूछने वाले आप कौनऐसा कह कर ये लोग संविधान का अपमान कर रहे हैं.
अंग्रेज़ जुल्मी था. उसे भारत को लूटना था. इसलिए उसने अपनी मनमर्जी से कानून बनवाए और देश की जनता पर अन्याय व अत्याचार करता रहा. इस तरह वह नाजायज और अमानवीय कानून के आधार पर भारत को लूट ले गया. अब हम प्रजातंत्र में हैं. गणतंत्र में हैं. लोकशाही में हैं. अब कोई भी कानून बनाना है तो उसका ड्राफ्ट बनाते समय जनता के अनुभवी लोगों को साथ में लेकर ही ड्राफ्ट बनाना है. और तब कानून बनाने के लिए उसे संसद में भेजना है. मैं उम्मीद करता हूं कि राजनीति के लोग इस बात को समझेंगे.

Monday, February 27, 2012

लोकतंत्र के मंदिर में ब्लू फिल्में देखते हैं:


सांसदों के खिलाफ अपनी टिप्पणी के लिए राजनीतिक दलों और नेताओं की आलोचना का सामना कर रहे  अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि लोकतंत्र के मंदिर संसद और विधानसभाओं में इसके सदस्य ब्लू फिल्में देखते हैं, विधेयक फाड़ते हैं और एक-दूसरे पर कुर्सियाँ फेंकते हैं.


''भारत में पार्टी आलाकमान की तानाशाही होती रही है. लेकिन अब इसे सही मायनों में जनता का जनता के लिए शासन बनाने का समय आ गया है.''''इस संसद में ऐसे 15 सांसद हैं जिन पर हत्या करने के आरोप हैं, 23 ऐसे सांसद हैं जिन पर हत्या के प्रयास के आरोप है, 11 सांसदों के खिलाफ धारा 420 के तहत धोखाधड़ी करने और 13 के विरुद्ध अपहरण के मामले दर्ज हैं.

''उत्तरप्रदेश में पार्टियों ने ऐसे पांच लोगों को चुनाव में खड़ा किया है जिन पर बलात्कार के आरोप हैं. क्या हम इन लोगों से उम्मीद करें कि वे भारत को भ्रष्टाचार और अपराध से मुक्त कराएंगे.''

अरविंद केजरीवाल

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2012/02/120227_kejriwal_bluefilms_sdp.shtm